जब साहिर लुधियानवी के 100 रुपये लौटाते हुए रो पड़े थे जावेद अख़्तर!

एंग्री यंग मैन के दौर वाले अमिताभ बच्चन का जिक्र जब रूमानियत के लिए आता है तो एक ही बात होती है….’जिंदगी तेरी नर्म जुल्फों की छांव में गुजरने पाती, तो शादाब हो भी सकती थी.’

तल्ख अंदाज वाले अमिताभ के इस अहसास को हिंदुस्तान की कितनी पीढ़ियों ने अपनी-अपनी प्रेमिकाओं के सामने दोहराने की कोशिश की होगी. मजेदार बात ये है कि ये नज्म साहिर ने कॉलेज के दिनों में किसी अधूरे प्रेम के लिए लिखी थी. जिस दौर में लोग साहिर को चुका हुआ मान चुके थे. यश चोपड़ा ने इस फिल्म में साहिर की नज्मों का लाजवाब इस्तेमाल किया. ये जिस किताब में है उसका नाम उन्होंने तल्खियां रखा. साहिर की जिंदगी का सार भी यही है, तल्खियां.

साहिर के बारे में कैफी आजमी कहते थे कि साढ़े पांच फुट का कद था जो किसी तरह सीधा किया जा सके तो छह फुट का हो जाए. साहिर ऐसे ही हैं. जन्मदिन अमृता का हो मगर जिक्र साहिर का होता है. शैलेंद्र की कुर्सी पर रुमाल रखकर खड़े रहने वाले गुलज़ार जब उर्दू फरमाते हैं, साहिर की ज़ुबां में बोलते हैं. दुनिया लता मंगेशकर की मुरीद थी, साहिर गीत लिखते वक्त मांग रखते थे कि लता से एक रुपया ज्यादा चाहिए. दुनिया अमृता-साहिर-इमरोज़ कर रही थी, वो सुधा मल्होत्रा को स्थापित करने की कोशिश करते रहे.साहिर का शाब्दिक अर्थ होता है जादू. साहिर की कलम में जादू है. इश्क की बारीकियों को जितनी खूबी से उन्होंने अपने गीतों में दिखाया है, शायद ही कोई और कर पाए. ‘हम-दोनों’ के लिए लिखा उनका अभी न जाओ छोड़कर सुनिए. हीरोइन कहती है, अगर मैं रुक गई अभी, तो जा न पाऊंगी कभी, यही कहोगे तुम सदा कि दिल अभी भरा नहीं. ये बात शायद इस देश के हर प्रेमी से उसकी प्रेमिका ने छिपकर मिलते वक्त कही होगी.

साहिर और अमृता
जीवन में प्रेम एक बार होता है को धता बताते हुए उन्होंने लिखा, चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम-दोनों… साहिर इस गीत में रिश्तों के बारे में जो भी लिखते हैं, उसे दर्शन की तरह पढ़ा जा सकता है. तार्रुफ रोग बन जाए तो उसको भूलना बेहतर, ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा. वो अफसाना जिसे अंजाम तक, लाना हो नामुमकिन उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर, छोडना अच्छा. प्रेम पर लिखे गए तमाम काल्पनिक रूपकों वाले गानों के बीच अपनी हकीकत के साथ ये गीत एक अलग आयाम पर खड़ा है.

साहिर भी इस गीत के मिज़ाज की तरह हर वक्त अलग-थलग ही रहे. उनकी खासियत थी कि अपनी कलम की कीमत जबरन वसूल कर लेते थे. जिस बंगले की पहली दूसरी मंजिल पर साहिर रहते थे, उसी में बाहर छोटे से हिस्से में संघर्षरत गुलजार रहते थे. गुलजार ने अपनी किताब ड्योढ़ी में साहिर का एक किस्सा सुनाया है.

किस्सा साहिर जावेद का
चूंकि किस्सा है तो इसमें हकीकत के साथ कुछ फसाना भी होगा. मगर किस्सा दो जादुओं के बीच का है. एक जादू यानी साहिर, दूसरा जादू जावेद अख्तर. मजाज़ के भांजे और जानिसार अख्तर के बेटे जावेद तब प्यार से जादू हुआ करते थे. जानिसार और साहिर हम-उम्र भी थे और दोस्त भी. शेर-ओ-शायरी के चलते साहिर और जादू में भी खासी दोस्ती थी. मगर एक पेंच था. अख्तर सरनेम वाले बाप बेटे में बिलकुल भी नहीं पटती थी. जावेद जब भी साहिर के घर जाते तो पूछते अख्तर (उनके पिता) आया था क्या.

एक बार जावेद ने घर छोड़ दिया. फिल्मिस्तान स्टूडियो के गोदाम और जाने कहां-कहां रहने लगे. कमाई थी नहीं. एक दिन साहिर के घर पहुंचे, कई दिन से नहाए नहीं थे, तो गुसलखाना इस्तेमाल करने की इजाजत मांगी. नहा-धो कर जब नीचे आए तो टेबल पर सौ रुपए रखे थे. साहिर ने कहा, जादू ये रुपए रख लो. सौ रुपए उन दिनों बड़ी रकम थी. बोले जब कमाने लगो तो वापस कर देना. जावेद मजबूर थे तो रुपए रख लिए. कुछ समय बीता, वो जादू से गीतकार जावेद अख्तर हो गए.

साहिर उनसे कहते मेरे सौ रुपए. जावेद कहते मैं वो खा गया. वापस नहीं दूंगा. साहिर कहते मैं लेकर रहूंगा. दोनों के बीच प्यार भरी नोक-झोक चलती रहती. एक दिन साहिर अपने डॉक्टर से मिलने उसके घर गए. इस बार तबीयत डॉक्टर साहब की खराब थी. वहां बातें करते हुए दिल का दौरा पड़ा, वहीं इंतकाल हो गया.

डॉक्टर ने जावेद अख्तर को ही फोन मिलाया. जावेद चुपचाप उनकी लाश को घर लेकर आए. जो भी जरूरी काम थे किए. तभी ध्यान आया कि जिस टैक्सी में साहिर को डॉक्टर के यहां से घर तक लाया गया, उसे तो पैसा दिया ही नहीं गया. टैक्सी वाला शरीफ आदमी था. मैयत उठने के इंतजार में वहीं चुपचाप रुका हुआ था. जावेद उसके पास गए तो फूट कर रो पड़े. टैक्सी वाले को सौ रुपए दिए, बोले मरते-मरते भी अपने पैसे ले ही गया.