मुस्लिमों के मामले में जजों के फैसलों पर क़ाज़ी तबरेज़ आलम ने उठाए सवाल

खबरें अभी तक। मुस्लिम अपने झगड़ों का निपटारा दारुल कज़ा (इस्लामी अदालत) में करें न की अदालतों में, रामपुर में हुए एक कार्यक्रम में यह कहते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दारुल कज़ा कमिटी के ओर्गनाइज़र क़ाज़ी तबरेज़ आलम ने मुस्लिमों के मामले में जजों के फैसलों और उनके ज्ञान पर सवाल खड़े कर डाले। उनके मुताबिक इस्लामी अदालतों में मुक़दमे निपटाए जाने से देश की अदालतों का बोझ कम होता है और यह देश के हित में हैं।

दारुल कज़ा यानी इस्लामी अदालतें एक बार फिर सुर्ख़ियों में है। आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दारुल क़ज़ा कमिटी के ओर्गनाइज़र काजी तबरेज़ आलम ने रामपुर में एक कार्यक्रम में तकरीर करते हुए मुस्लिमो से अपने आपसी झगड़े निपटाने के लिए अदालतों में नहीं बल्कि दारुल क़ज़ा ( इस्लामी अदालत) में जाने की अपील की।  उन्होंने कहा एक मुसलमान के लिए शरियत को ही अपना जज और आर्बिट्रेटर बनान ज़रूरी है यानी अपना झगडा क़ाज़ी के सामने पेश करें।

क़ाज़ी तबरेज़ ने कहा की केवल मामला क़ाज़ी के सामने पेश करना ही काफी नहीं बल्कि जो भी फैसला दारुल क़ज़ा ( इस्लामी अदालत ) दे उसे ख़ुशी ख़ुशी मानना भी मुसलमानों के लिए ज़रूरी है। यह सवाल नही उठाना चाहिए की आपको किसने हक दिया फेसला करने का , कौन से कानून से आपको अधिकार है।

उन्होंने कहा की मुसलमानों के मामलात के लिए अलग इस्लामी अदालतें कायम करने का पुराना इतिहास है। गुजरात में हिन्दू राजाओं ने भी मुसलमानों के लिए अलग मुस्लिम काजी नियुक्त किये थे जिन्हें माहिर बोला जाता था।

अपने भाषण में काजी तबरेज़ ने निकाह तोड़े जाने का अधिकार केवल मुस्लिम में निहीत होने की बात कही। उन्होंने कहा की अदालत में अगर किसी मुस्लिम महिला का निकाह ख़ारिज करने का फैसला जज देता है तो अगर वह जज मुस्लिम है तो ही निकाह ख़ारिज होगा।

क़ाज़ी तबरेज़ इतने पर ही नहीं रुके बल्कि जजों के ज्ञान पर भी सवाल उठा डाले। उन्होंने कहा कम ही जजों को इस्लामी शरियत का ज्ञान होता है। एसे में उन से शरियत के मुताबिक फैसले करने की उम्मीद करना कहां तक ठीक है।

काजी तबरेज़ के मुताबिक दारुल क़ज़ा (इस्लामी अदालतें) देश हित में हैं यह न केवल अदालतों का बोझ कम करने का काम कर रही हैं बल्कि न्याय व्यवस्था पर मुल्क के खजाने के खर्च होने वाले लाखों रूपये भी बचा रही है।