कुंभ की त्रिवेणी नदी नहीं बल्कि करोड़ों लोगों की आस्था है पढ़िए इस लेख में ….

खबरें अभी तक। कुंभ की त्रिवेणी में नदी नहीं बल्कि करोड़ों लोगों की आस्था बहती है. यही आस्था कुंभ का अमृत तत्व है. जन-आस्था के महाकुंभ से ही समाज चलता है. प्रयाग के इस महाकुंभ में जो दस करोड़ लोग आए, उन्हें किसी ने न्योता नहीं दिया था, न कोई विज्ञापन, न कोई अपील, न मुफ्त भोजन और न ही रहने का इंतजाम. जिंदाबाद के नारे लगाने के लिए उन्हें बसों में भरकर भी नहीं लाया गया, फिर भी हमारी सभ्यता का यह सबसे बड़ा जमावड़ा था.

तमाम विघ्न-बाधा पार कर मजबूरी की गठरी सिर पर लादे लोग यहां आते हैं. उन्हें वही श्रद्धा यहां तक लाती है, जिस श्रद्धा और निष्ठा से देश चलता है. जो लोग कुंभ को महज एक पोंगा धार्मिक आयोजन समझते हैं, उन्हें न उसका धार्मिक अर्थ समझ पड़ता है, न लौकिक.

गंगा यहां कितनी भी गंदी हो, यमुना भले कीचड़ हो गई हो. अनंतकाल से सरस्वती यहां लुप्त ही है. इसके बावजूद करोड़ों लोगों की आस्था ही त्रिवेणी को पवित्र और पुण्यदायी बनाती है. गंगा से अपना नाता कोई बावन बरस का है. उसके किनारे जन्मा. वहीं शरीर बना. कामना है, उसी गंगा में यह शरीर नष्ट भी हो. सबसे पहले मैं 1977 के महाकुंभ में गया था. छोटा था, अपनी चाची के साथ गया. मौसी की कुटिया में रहा. तब से हर कुंभ में जाता रहा. मेरे लिए यह चौथा महाकुंभ था. इस बार संगम के किनारे टेंट में एक रोज का ‘कल्पवास’ भी किया.

साठ वर्ग किमी के दायरे में बसे तंबुओं के शहर में कोई दस करोड़ लोग आए. आप कितने भी तीसमार खां हों, मनुष्य जाति के इस सबसे बड़े मेले में आते ही आपका अस्तित्व खो जाता है. व्यक्तित्व भीड़ का हिस्सा होता है. छत्तीस साल से कुंभ में आते-जाते मेरे लिए कुंभ अब शाश्वत भारत में विलीन हो, उसे समझने का महापर्व है. जातीय और सामाजिक दायरों से मुक्त हमारी सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है.

कुंभ तो समूचे भारत को जोड़ने का काम शताब्दियों से कर रहा है. पर हमने गंगा के साथ क्या किया. गर्मियों में मैं अपने ननिहाल जाता, इलाहाबाद के बहादुरगंज में. पिताजी के साथ बहादुरगंज से दारागंज पैदल जाना होता. दारागंज का अपना साहित्यिक संसार था. जिसके केंद्र थे पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी ‘भैया साहब.’ गंगा की चौड़ाई यहां किलोमीटर में थी.

अपने पहले कुंभ 1977 में दारागंज से झूंसी तक गंगा का जो पाट मैंने देखा था, गंगा अब वैसी नहीं दिखती. अब गंगा यहां बरसाती नाले सी है, वह भी महाकुंभ के लिए सरकार ने पानी छोड़ा तब. क्या कर दिया हमने इस जीवनदायिनी के साथ? मेरे देखते-देखते गंगा प्रयाग में सरस्वती बनने के कगार पर है. यही हाल रहा तो मेरा बेटा गंगा को वैसे ही ढूंढेगा, जैसे संगम में नहाते वक्त हम सरस्वती को ढूंढ रहे थे.

समुद्र-मंथन से निकला अमृत देवताओं और असुरों की छीना-झपटी से जिन चार जगहों पर छलका, उन्हीं स्थानों नासिक, उज्जैन, हरिद्वार और प्रयाग में हर तीसरे साल कुंभ आता है. उसी नक्षत्र और घड़ी में एक शहर का नंबर बारहवें साल में आता है. संयोग है कि अमृत के लिए सुरों-असुरों में बारह रोज तक युद्ध चला था.

देवताओं का एक दिन मनुष्य के एक वर्ष के बराबर है. तब से जब भी सूर्य और चंद्रमा मकर राशि में और बृहस्पति मेष राशि में आता है तो प्रयाग में महाकुंभ लगता है. सूर्य की गति को कौन रोक सकता है. इसलिए कुंभ अवश्यंभावी है. इस मेले का पहला लिखित वृत्तांत चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा-वृत्तांत में मिलता है.

वक्त के साथ सुविधा के औजार कुंभ में भी पहुंचे. टीवी पर एक आधुनिका कह रही थी, ‘कुंभ का आधुनिकीकरण हो गया. वहां बाजार पहुंच गया है.’ कोई यह बता दे कि दुनिया का कौन सा सबसे बड़ा बाजार एक जगह पर दस करोड़ लोगों को इकट्ठा कर सकता है. जानना चाहिए कि कुंभ से बाजार पैदा होता है, बाजार से कुंभ नहीं. एक जमाना था, जब कुंभ शास्त्रार्थ का केंद्र हुआ करता था. तर्क और ज्ञान से धर्मयुद्ध जीते जाते थे. कुमारिल भट्ट और आचार्य शंकर का शास्त्रार्थ यहीं हुआ था.

कुंभ को संस्थागत रूप आचार्य शंकर ने ही दिया था. उसके बाद मंडन मिश्र और शंकराचार्य, फिर मंडन मिश्र की पत्नी भारती और शंकराचार्य में शास्त्रार्थ के सूत्र भी यहीं मिलते हैं. वक्त बदला है, संत अब यहां धर्म पर नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री कौन बने, इस पर विचार करते हैं. अब शास्त्रार्थवाले साधु भी नहीं हैं. गोली, बंदूक, बलेरो, सफारी और आईपैड वाले साधु यहां जरूर मिलते हैं.

दरअसल, त्रिवेणी की सरस्वती प्रतीक है, तीर्थकामी लोगों की. आस्था की सरस्वती नदी क्या कभी प्रयाग में थी भी? यह सवाल बड़ा है. सरस्वती का भी अस्तित्व तो अब विज्ञान प्रमाणित करता है, पर प्रयाग में नहीं. मानसरोवर से निकलकर यह नदी कच्छ के रन तक पहुंचती है. फिर प्रयाग में कैसे इसका प्रवाह? वह तो इस उत्तरी प्रांत में स्वतंत्र जलधारा के रूप में कभी बही भी नहीं.

कहीं कोई प्रमाण नहीं है कि सरस्वती कभी यहां थी. दरअसल, वह यहां लोक के रूप में मौजूद थी. कुंभ में जनसमुद्र के तौर पर वह बहती है. इसी ज्ञानगोचर संगम में चारों शंकराचार्य और इन पीठों की रक्षा के लिए बने तेरहों अखाड़ों के महामंडलेश्वर के कुंभ में सबसे पहले स्नान की परंपरा है. इन अखाड़ों के प्रशासनिक प्रमुख तो इनके महंत होते हैं, पर उन्हें वैचारिक और आध्यात्मिक आधार महामंडलेश्वर देते हैं.

प्रतीकात्मक तस्वीर

इस दफा कुंभ में अक्षयवट के भी दर्शन हुए. अकबर के बनाए किले में यमुना के किनारे यह अक्षयवट बंद है. कहते हैं कि अक्षयवट प्रलय में भी नष्ट नहीं होता, इस पर विष्णु का निवास है. स्वयं भगवान् शिव ने इसे प्रयाग में लगाया था. वनगमन के दौरान राम, लक्ष्मण, सीता ने भी इसके दर्शन किए थे-ऐसा तुलसीदास लिखते हैं. बाद में यह किला सेना का आयुध डिपो बना और अक्षयवट से कूदकर साधु-संत मोक्ष के लिए आत्महत्या करने लगे. ‘सुसाइड पॉइंट’ बनने के बाद इस वट को किले में बंद कर आम लोगों की पहुंच से दूर किया गया, हर बार कुंभ के मौके पर वह खुलता है.

 कुंभ में डुबकी लगा हम लौट आए. गंगा की बदहाली से चित्त विचलित था. गंगा उदास है, प्रदूषित है. इसका पानी लगातार घट रहा है. इस नदी का भी सरस्वती की तरह लोप हो सकता है. नदियों ने महान संस्कृतियां पैदा की हैं. हम उसे नष्ट कर रहे हैं. जिसे हम बना नहीं सकते, उसे मिटाने का हक भी हमें नहीं है. कुंभ से लौटते वक्त हम यह तो संकल्प ले ही सकते हैं कि ऐसी जीवनशैली अपनाएं, जिससे पानी बरबाद न हो और वह जहर न बने. तभी गंगा हमें तार पाएगी.